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जैन जगती
अतीत खण्ड
इनके भरोसे बैठना अब तो भयंकर भूल है; क्या रोप देंगे जड़ हमारी !-आप ये निमल हैं। बेड़ा हमारा पार क्या येही करेंगे ? सच कहो; हा ! हंत ! आया अंत है !-ऐसा नहीं तुम कुछ कहो ॥६५॥ इनके वहाँ पर मान है श्रीमन्त बिन होता नहीं; धनहीन भाई को यहाँ दुत्कार है, न्योता नहीं। हम किस तरह से हाय ! इनसे तुम कहो आशा करें; दुत्कार ठोकर द्वार पर इनके सदा खाया करें ? ॥ ६६ ।।
श्रीमन्त की संतान यह कौन हैं ? नहिं जानते ? श्रीमंत की संतान हैं; नङ्गे, निरक्षर, मूर्ख हैं, पाषाण, पशु, नादान हैं। सीखा न अक्षर बाप ने, सीखा न ये हैं चाहते; भर्याद ये भी वंश की तोड़ा नहीं हैं चाहते !! ॥ ६ ॥ आलस्य, विषयानंद के ये दुर्व्यसन के धाम हैं, बढ़कर पिता से पुत्र नहिं होता न जग में नाम है। ये अर्ध निद्रा में पड़े हैं, नाज-मुजरें ले रहे; वामा पड़ी विमुखा उधर, ठेके इधर ये दे रहे !! ॥ ६ ॥ ये बोलने पर पनि के डण्डे बिना नहिं बोलते; उसको किये मृतप्राय बिन सीधी कभी नहिं छोड़ते ! हा! हंत ! भावज पनि है, हा! बहन के ये यार है। ये भी विचारें क्या करे ! रति-भाव से लाचार हैं ।। ६६ ॥ .