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जैन जगती
अतीत खण्ड
जितने कलह हैं जाति में इस भाँति से पुष्पित हुये, घर, तीर्थ, मंदिर, जाति तक जिनके चरण लंबित हुये, ये साम्प्रदायिक रूप जिनके नित भयंकर हो रहे वे काम सब हैं आपके-बल आपके वे हो रहे ।। ६०॥
जिस ठौर पैसा चाहिए तुमको न देना है वहाँ; देना तुम्हें उस ठौर है अति अधिक पैसा है जहाँ। उपयोग करना द्रव्य का तुमको तनिक अाता नहीं; जब तक न संयमशील हो, उपयोग भी आता नहीं॥६१॥
तन में कमी है रक्त की या मांस तन में है नहीं; तुम रक्त कपि को मार कर भी चूस लो-कुछ है नहीं । तुम जैन होकर यों अहिंसा धर्म का पालन करो! धिक्कार तुमको लाख हैं, क्यों धर्म को श्यामल करो ।। ६२ ।। ऐसे हमें श्रीमन्त पर क्या गर्व करना चाहिए; शिल बाँध कर इनक गले जल में डुबोना चाहिए। जिनके उरों में जाति प्रति यदि नेह कुछ जगता नहीं; संबंध फिर ऐसे जनों से जाति का रहता नहीं॥३॥
ये दीन जायें भाड़ में इससे उन्हें कुछ है नहीं; ये जाति में उनकी कहीं भी चीज कोई है नहीं। धन-धान्य-सुख-संपन्न हैं ये क्यों किसी का दुख करें; क्या दीन ने इनको दिया जो दीन का ये दुख हरें।। ६४॥