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जैन जगती
* प्रतीत खण्ड गुर्जर व मालव देश के हम शाह थे, सरदार थे; सौराष्ट, राजस्थान के प्रामात्य थे, भूदार थे। ऐसा पतन तो शत्रु का भी नाथ ! हा ! करना नहीं; इससे भली तो मृत्यु है, जिसमें न है लज्जा कहीं ॥५॥ श्रीमंत होने मात्र से क्या अवपतन रुकता कहीं; हैं किस नशे में झूमते, हमसे न कम गणिका कहीं। कितनी हमारे पास में दौलत जमा है देख लूँ; किस श्रेणि के फिर योग्य हैं हम, श्रेणि वह भी लेख लूँ ॥६॥ हम शाह हैं या चोर हैं, हम हैं मनुज या हैं दनुज; हम नारि हैं या हैं पुरुष ! अत्यंज तथा या हैं अनुज । हिंसक तथा या जैन हैं, या नारि-नर भी हैं नहीं; क्यों की हमारे कार्य तो नर-नारि सम खलु हैं नहीं ॥ ७ ॥
अविद्या क्यों सूत्र ढीले पड़ गये ? क्यों अवगुणों से ढक गये ? क्यों मन-वचन-अरविंद पर पाले शिशिर के पड़ गये ? निज जाति, धन, जन, धर्मका क्यों ह्रास दिन-दिन हो रहा? हम चेतते फिर क्यों नहीं ? क्या रोग विभुवर ! हो रहा ॥८॥ हममें विषय का जोर क्यों ? हममें बढ़ा अतिचार क्यों ? उन्मूल हमको कर रहा यह अन्ध श्रद्धाचार क्यों ? घातक प्रथायें, रीतियों के घोर हम हैं अह क्यों ? हम आप अपने ही लिये उत्कीर्ण रखते खर क्यों ?