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जैन जगती. • अतीत खण्ड
Sacredit अतिव्यय हमारे में अधिक क्यों आय से भी बढ़ रहे ? अनमेल-अनुचित-शिशु-प्रणय हममें अधिक क्यों घट रहे ? हममें सुशिक्षा की व्यवस्था नाम को भी क्यों नहीं ? क्यों सो रहे युग-नींद हम ? हम जागते हैं क्यों नहीं ? ॥१०॥ क्यों आज 'अज' को 'मेर' को मर रोज' को रज लिख रहे ? 'चत्वार पट' लिखना जहाँ चौपट वहाँ क्यों लिख रहे ? 'सुत' को सुता क्यों लिख रहे ? क्यों बन रहे नादान हैं ? इस जग-अजायब गेह में हम क्यों अजब हत्ज्ञान हैं ? ||११।। इस अवदशा का बन्धुओ ! क्या हेतु होना चाहिए ? क्या द्वेष, मत्सर, राग को जड़-हेतु-कहना चाहिए ? इनका जहाँ पर जन्म है-जड़-हेतु है सच्चा वही; इनकी अविद्या मातृ है, जड़-हेतु अवनति का वही ।। १२ ।।
आर्थिक स्थिति एकाक्ष का अन्धे जनों में मान बढ़ता है यथा; कंकाल-भारतवर्ष में श्रीमंत जन हम हैं तथा । कुछ मोड़ कर ग्रीवा सखे ! हम पूर्व-वैभव देख लें; फिर दीन हैं, श्रीमन्त या जलकण बहाकर लेख ले ॥१३ ।। हे बन्धुश्रो ! गणना हमारी लक्ष तेरह है अभी; कोटीश जन, लक्षेश जन हममें मिलें कितने अभी? मैं आप जैनी हूँ, हमारा जानता गृह भेद हूँ; अब खोलने गृह-पोल को मैं बन रहा गृहछेद हूँ॥१४॥