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जैन जगती
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* अतीत खण्ड
विद्या न वैसी मिल रही, जैसी हमें अब चाहिए; अज्ञानतम रहते हुये कैसे बढ़ें बतलाइये ? कौशल - कला व्यापार में हम ठेट से निष्णात थे; हम घट गये, वे बढ़ गये, जो ठेट से बदजात थे ! ॥ ३६६ ॥ सरकार का उपकार फिर भी बहुत कुछ देखो हुआ; इनकी कृपा से आज इतना देखने को तो हुआ । परतंत्र्य के ये कोट जिस दिन देश से उड़ जायँगे; शुभ दिन हमारे देश के फिर उस दिवस जग नायँगे ॥ ४०० ॥
हम श्राज-
वैसे न दिन अब हाय ! हैं, वैसी न रातें हैं यहाँ; अब हाय ! वैसे नर नहीं, वैसी न नारी हैं यहाँ । हा ! स्वर्ग सा वह भूत भारत भूत सदृश रह गया ! करण मात्र भी अब उस छटा का शेष है नहिं रह गया ! ||४०१ || है वायु भी बहती वही, आनंदप्रद वैसी नहीं; ऋतुराज, पावस, ग्रीष्म की भी बात है वैसी नहीं । बदली हुई हमको हमारी मातृ-भूमी दीखती; हा ! पूर्व-सी वैसी कृषी उसमें न होती दीखती ! ॥ ४०२ ॥
अधचार, पापाचार, हिंसाचार, मिथ्याचार हैं; रसचार हैं, रतिचार हैं, सब के बुरे व्यवहार हैं ! हम दीन हैं, मति हीन हैं, नहिं मदन पर कोपीन हैं; दासत्वता में, भृत्यता में नाथ ! अब लवलीन हैं !! ।। ४०३ ॥
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