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, जैन जगती PONSORRHOOL
ॐ अतीत खण्ड®
कानून-परिषद में हमारे शूद्र अब जाने लगे; फिर भी न जाने क्यों नहीं अच्छे बृटिश लगने लगे। सुविधा हमें सब भाँति से सब जाति की ये दे रहे; हम माँगते निज राज्य हैं, क्या राज्य मुँह से मिल रहे ? ३६४ ।। शासन हमें इन नरवरों का आज क्यों भाता नहीं; दुष्भाव हममें हो भले, दुष्भाव इनमें तो नहीं । यदि है हमारे कुछ जलन उर में, उसे कह दें यहाँ ये स्वामि है, हम दास हैं, सब हैं क्षमा भूलें यहाँ ।। ३६५ ।।
सबसे प्रथम यह प्रार्थना तुम देश के होकर रहो; इस दीन भारतवर्ष के तुम पुत्र बन कर के रहो। करके उपार्जित धन यहाँ अन्यत्र यों फूको नहीं; धन द्रव्य भारतवर्ष का अन्यत्र जाने दो नहीं ।। ३६६ ।।
हैं अन्य देशों में कला-कौशल धड़ाधड़ बढ़ रहे; कल कारखाने नित्य नव आये दिवस हैं खुल रहे। सुविधा न इनकी है हमें अन्यत्र जैसी देखते; हा ! हंत ! यों रहना पड़े मुँह दूसरों का पेखते ॥ ३६७ ।। जिह्वा हमारी बन्द है, सब मार्ग भी हैं बन्द-से; परतंत्र्य के इस कोण में हम फिर रहे पशुवृंद से । जब तक न भारतवर्ष को सुविधा न हा ! दी जायँगी; तब तक न ये दासत्व की दृढ़ बेड़िये कट पायँगी ।। ३६८॥