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माता का पुत्री को उपदेश ।। (१) प्यारी बेटी ! जिम लग्न में तेग विवाह हा मी समय में तूं पगई होचुकी. अब तेरा वही धर्म है कि जिन भांति हमारे आधीन रहती आई है. उमी प्रकार अपने नवीन माना पिता अर्थात मास, ममुर की आधीनता में रहकर उनकी आज्ञा पालन करना ।।
(२) विवाह सम्बन्ध ने तेरे कर्मानुमार जो पनि मिलाहै उमे मव से उत्तम और आदर योग्य समझकर उनके माथ नम्रता से रहना । स्त्रियों का मन में उत्तम और प्रगमनीय कार्य पति की संत्रा करना और उनकी आज्ञानुमार चलना है।
(३) अपने सास, ससुर, कुटुम्बी रिश्तेदार और पुगपड़ाम वालों से मदा अच्छा बर्ताव रचना, कभी किसी में द्वप न करना और अपने जेठों बड़ों के निम्नापन को मानना यही सुपुत्रियों का काम है।
(४) यदि पति किसी कारण तुह्मारा निगदम्भी कर तो तुम भूलकर कभी क्रोध न करो और मदा नबता में अपने पति को प्रसन्न रखने का उपाय करो।
(५) सदा मव में सत्य और मीठा बोलना, कभी रिनी की बुराई या चुगली न करना ॥
(६) प्रातःकाल मव में पहिले उठना और गत्रि को नव से पीछ सोना, सेल-तमागे देखने की इच्छा न रखना चार