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त्युं मुरष आत्म बिषैरे ॥ मैट्यौं जंग भ्रम
जाल ||३|| जीबरे० || सरप अंधारे राडीरै
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रूपौ सीप मझार ॥ मृग तृसना अंबुज मृषारे ।
त्युं आतम में सँसार ||४|| जावरे० ॥ अग्नि बिषै जौ मणि नहींरे || सिंह सुसै सिरनाय
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कुसम न लागै व्योम मेरे || ज्युं जगः आतम
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माहि ॥ ५ ॥ जीवरे० : ॥ अमर अजैौनी आतमारे || हूं निचे तिहूकाल || विनैचद अनुभव जगीरै तू निज रूप संभाल ॥ ६ ॥ नीवरे तु पार्श्व जिने सर बंद ||२३|| इति ॥
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* दाल श्री नव कारजपोमन रगें ॥. एदेशी
तुम पितु जनक सिद्धारथं राजा ॥ तुम त्रस काडे मातरे प्राणी । ज्यांत जायो गोक
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