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________________ ( ४४ ) क्षीणाष्टकर्मा परमेष्ठ्यधीश्वरः । शम्भुः स्वयम्भुर्भगवान् जगत्पतिस्तीर्थकरस्तीर्थकरो जिनेश्वरः || ( इत्यादि ) अब मै अपनी लेखनी को विश्रान्ति देता हुआ आपसे (शास्त्री - जी से) प्रार्थना करता हॅू कि 'सहसा विदधीत न क्रियाम्' इस वाar को आप वरावर याद रखिये, याने जिस सिद्धान्त का खण्डन करना उसका मण्डन बराबर देख लेना, परन्तु गडरिका प्रवाह की तरह प्राचीन बुड्ढोकी माफक अण्ड वण्ड नहीं घसेटना. समय आनेपर वे सब बुड्ढों की ( कुमारिल, गौतमादि की ) भी मनीपा मीमांसा करूँगा. अब जिस वेद में हिंसा भरी हुई है, और जिस वेद की भाषा का भी कुछ ठिकाना नहीं है, क्योंकि ऋषी पाणिनीय ने भी अपनी प्राकृतमञ्जरी में छ भाषा की गिनती की है जो संस्कृत, प्राकृत शौरसेनी, पैशाची, मागधी और अपभ्रंश है, उसमें की कोई भी भाषा वेद में नहीं है, किन्तु वेद में विचित्रही भाषा है, उस वेद को भी वर्मान्वशात्रीजी ईश्वर तुल्यमान रहे है, अहो ! क्या श्रद्धा का चमत्कार की गधे को भी सींग मानना, बस लेख में जो कुछ शाबीजी की हित शिक्षा के लिये कटु शब्द लिखे गये हों सो शास्त्री - क्षमा करें।
SR No.010234
Book TitleJain Gazal Gulchaman Bahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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