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________________ ( ३२ ) रूप संबन्ध से रहता है वेसैही पृथिवी में पृथ्वीत्व, घट में नील वगैरह को भी स्वरूप संबन्ध से रहने वाले मानो, क्यों निष्फल समवाय की जूठी कल्पना करते है ?, भला यह क्या बात है कि पृथिवीका धर्म पृथ्वीत्व तो पृथ्वी में समवाय से रहे, और समवाय का धर्म समवायत्व समवाय में स्वरूप संबन्ध से रहे ?, हम तो यह कहते है कि दोनों धर्म एकही संबन्ध से मानना चाहिये, तो जो समवाय से मानों तो समवाय का एकत्व नष्ट होजायगा, और स्वरूप सबन्ध से मानो तो यह बात सर्वाभेद्य है, इस लिये समवाय कोई भी प्रकार से पदार्थ की गिनती में नहीं आ सकता, और पूर्वोक्त प्रकार से नित्य पदार्थ क्रमसे अर्थ क्रिया नहीं कर सकता है. यदि शास्त्रीजी कहें कि अक्रम से अर्थक्रिया करता है, तो फिर जरा शास्त्रीजी स्वय सोचे की वह जब अक्रम से ( युगपत् ) साथही एक क्षण में सब क्रिया कर देगा तो फिर दूसरे क्षण में क्या बनावेगा ?, यदि कुछ न करे तो फिर अर्थक्रिया शून्य होने से पदार्थ की गणना में कैसे आ सकता है ? . और यदि कुछ क्रिया करे तो फिर क्रम ही हो गया, और शास्त्रीजी का अक्रम पक्ष तो गंगास्नान करने को गया, और भी यह बात अनुभव से विरुद्ध है की एक ही पदार्थ सब क्रियाओं को एक क्षण में कर देवें, इसलिये कभी अक्रम से भी अर्थक्रिया नहीं हो है. तब जब कूटस्थ अपरिणामि नित्य मानने पर कोई चीज
SR No.010234
Book TitleJain Gazal Gulchaman Bahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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