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________________ तब हम यह पूछते हैं कि क्या वह सहकारीगण उस आत्मा का कुछ उपकार करते है, या नहि करते हैं 2. यदि नहि करते है, तो जब वह सहकारी हाजिर नहीं था तब वह आत्मा अर्थक्रिया नहीं करता था, वैसे ही सहकारीगण सेवा में उपस्थित होने पर भी क्यों अर्थक्रिया करेगा 2. अब शास्त्रिजी कहें की सहकारी उसको उपकार करते हैं, तो वह सहकारी कृत उपकार आत्मासे भिन्न है, या अभिन्न है ?, यदि वह उपकार को अभिन्न माना जाय तो जैसे क्रियमाण उपकार अनित्य है, उसी तरह तदभिन्न आत्मा भी अनित्य हो जायगा, इसीसे लाभ होनेकी चेष्टा करते हुए भी आपने अपने लाभ को नष्ट किया. यदि क्रियमाण उपकार और उपकार्य आत्माको भेद माने तो वह उपकार उसी आत्मा को है ऐसा ज्ञान कैसे होगा ?. वह उपकार और किसीका क्यों नहीं है, इसमें क्या प्रमाण है ?, यदि शास्त्रीजी कहें की उपकार और उपकार्य को परस्पर समवाय नामक संवन्ध है, जिससे 'तस्यैवायमुपकारः'' यह ज्ञान स्पष्ट होगा, तब मैं यही कहता हूं की समवाय मानने पर भी वह ही दोष आवेगा, क्योंकि समवाय भी एक खयुप्प तुल्य पदार्थ है, और वह एक, व्यापक होने से ( उसीसे ) उसका संबन्ध सर्वत्र होने से यह नियम नहीं हो सकता है कि यह उसका ही उपकार है. और कोई समवाय पदार्थ ही नहीं है, क्योंकि जैसे समवायत्व समवाय में स्व
SR No.010234
Book TitleJain Gazal Gulchaman Bahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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