SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१९) . " कहते है। ये वधे हुए कर्म, कषायानुमार अच्छा बुरा फल देनेको समर्थ होते हैं। फल भोगने में किसी भी ईश्वरकी आवश्यकता नही। रहा पैठा , करनेकी निस्वत, सो जैसा हम पहिले कह आए हैं पैदा तो कभी कोई चीज़ इस तरह हुई ही नहीं कि पहिले उसका अभाव हो, अब सदभाव हो गया हो। जीव, अजीव जिनके सिवाय सप्तारमें कोई चीज नहीं, सदासे हैं और सदा रहेंगे। जीवका अनादि कालसे कर्मों के साथ सम्बन्ध है और इसी कारणसे संसारमें भ्रमण कर रहा है और जब तक कर्मोका बंधन दूर न होगा तब तक वह संसारमें संसरण करता रहेगा। बंधन दूर हो जानेपर आत्माका शुद्ध स्वरूप प्रगट हो जायगा और परमात्मा पढको पहुच जायगा। उसी दशाको पहुंचना जीवमात्रका उद्देश है और उसीके लिए उपाय करना उसका कर्तव्य है। __ अब हम इस लेखको जियादह बढाना नहीं चाहते केवल इतना कहकर समाप्त करते हैं कि ईश्वरको सृष्टिकर्ता हर्ता मानना सर्वथा असत्य और उसके अनतर गुणोंको घटाना है। ईश्वरमें कर्ता हर्ताका जरा भी दूषण नहीं है, वह कर्मफल रहित शुद्ध आत्मा है अनता दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्यका धारी है, भूख, प्यास, जन्म, मरण, रोग, शोक, भय, विस्मय, खेट, स्वेट, राग, द्वेष वगैरह दोषोसे रहित हैं । भावार्थ-सच्चा ईश्वर वही है, जोः
SR No.010234
Book TitleJain Gazal Gulchaman Bahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy