________________
७४
जैनधर्मामृत जैन शास्त्रोंकी परिभापामें अर्धपुद्गल परिवर्तन-प्रमाण कहा है ), जब जीवके सम्यग्दर्शनको प्राप्त करनेकी योग्यता आती है, उसके पूर्व वह कितना ही प्रयत्न क्यों न करे, पर सम्यक्त्वको नहीं पा सकता, क्योंकि उसके भीतर वह योग्यता ही उत्पन्न नहीं होती, जिससे कि वह सम्यक्त्वको पा सके । दूसरी बात यह है कि संसार-वासके अल्प रह जाने पर भी यदि योग्य सामग्रीरूप देशना आदि पाँच लब्धियों की प्राप्ति जब तक नहीं होगी तब तक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होगा। तीसरी बात यह है कि प्रथम वार उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन अन्तर्मुहूर्त्तकालसे अधिक नहीं ठहर सकता । जैसे सावन की घन-घोर रात्रिमें एक बार बिजली चमक जाने पर प्रकाश दृष्टिगोचर होता है और उसके तत्काल बाद ही चारों ओर अंधेरा दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार मिथ्यात्वी जीवके औपशमिक सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर एक बार कुछ क्षणके लिए आत्माका प्रकाश दृष्टिगोचर होता है और आत्मसाक्षात्कार हो जाता है। किन्तु आत्मसाक्षात्कारकी यह दशा अधिक देर नहीं रहती है। चौथी बात यह है कि प्रथम बार प्राप्त हुए औपशमिक सम्यग्दर्शनके पश्चात् नियमसे मिथ्यात्व कर्मका उदय आता है और वह औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव पुनः मिथ्यात्वरूप पातालमें गिरकर डूब जाता है। किन्तु उसके पश्चात् प्रयत्न करने पर उस जीवको औपशमिक. सम्यक्त्वकी प्राप्ति फिर भी हो सकती है।
१. देखो परिशिष्टमें पारिभाषिक शब्दकोष । विशेषके लिए सर्वार्थ- सिद्धि के दूसरे अध्यायमें १० वें सूत्रकी टीका। .. . २. देखो परिशिष्ट में पारिभाषिकशब्दकोष । विशेषसे लिए लब्धिसार ।