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द्वितीय अध्याय
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तदनन्तर यह जीव कुछ विशिष्ट पुरुषार्थ करता है और क्षायोपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करता है, जो कि एक बहुत लम्बे समय तक अर्थात् अनुकूल सामग्री बने रहने तक बना रहता है ।
क्षायोपशमिक सम्यक्त्वका स्वरूप
क्षीणोदयेषु मिथ्यात्व मिश्रानन्तानुबन्धिषु । लब्धोदये च सम्यक्त्वे क्षायोपशमिकं भवेत् ॥ ६६ ॥
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मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, इन छह कर्मोंके क्षयोपशम होने पर तथा सम्यक्त्व - प्रकृतिके उदय होने पर जो सम्यग्दर्शन होता है, उसे क्षायोपशमिक कहते हैं ॥६९॥
विशेषार्थ - आगे कर्मोंके आठ भेद बतलाये गये हैं, उनमें सबसे प्रधान कर्म मोहनीय हैं । इसे कर्मों का सम्राट कहा जाता 1 इसके मूलमें दो भेद हैं- दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय | दर्शन मोहनीय कर्म आत्माके सम्यग्दर्शनगुणका और चारित्रमोहनीय कर्म आत्मा के चारित्रगुणका घात करता है । चारित्रमोहनीय कर्मके भी दो भेद हैं- कषाय वेदनीय और नोकषायवेदनीय । कषाय वेदनीयके सोलह भेद हैं । जो इस प्रकार हैं-- अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यावरण क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । इनमें से अनन्तानुबन्धी क्रोधादि कषाय भी दर्शनमोहनीयके साथ जीवके सम्यग्दर्शन गुणको प्रकट नहीं होने देते हैं । अप्रत्याख्यानाचरण क्रोध मान, माया, लोभके उदयसे जीव भाव गृहस्थधर्मको