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द्वितीय अध्याय लेगा। उसके पश्चात् नियमसे निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त हो जायगा ॥६२-६५॥
. औपशमिकसम्यग्दर्शनका स्वरूप
भव्यः पन्चेन्द्रियः पूर्णः लब्धकालादिलब्धिकः । पुद्गलार्धपरावर्ते काले शेपे स्थिते सति ॥६६॥ अन्तर्मुहूर्त्तकालेन निर्मलीकृतमानसः । आधं गृह्णाति सम्यक्त्वं कर्मणां प्रशमे सति ॥६७॥ . निशीथं वासरस्येव निर्मलस्य मलीमसम् ।
• पश्चादायाति मिथ्यात्वं सम्यक्त्वस्यास्य निश्चितम् ॥६॥ . अर्ध-पुद्गलपरिवर्तनकाल-प्रमाण संसार-वासके शेष रह जाने पर जिसे काललब्धि आदि योग्य सामग्रीका संयोग प्राप्त हुआ है, ऐसा किसी भी गतिका संज्ञी, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्तक भव्यजीव विशुद्ध परिणामोंकी प्राप्तिरूप करणलब्धिके प्रसादसे अन्तर्मुहूर्त्तकालके द्वारा अपने मानसको निर्मल करता हुआ अनन्तानुबन्धी कषाय और दर्शनमोहनीय कर्मका प्रशमन होनेपर प्रथम वार आद्य औपशमिकसम्यक्त्वको ग्रहण करता है । सो जिस प्रकार निर्मल दिनके पश्चात् मलीमस ( अन्धकार-व्याप्त) रात्रि आती है, उसी प्रकार इस प्रथम बार प्राप्त हुए सम्यक्त्वके पश्चात् नियमसे , मिथ्यात्वका उदय आ. जाता है ॥६६-६८॥ . . - भावार्थ-यहाँ कुछ बातें ज्ञातव्य हैं। पहली बात तो यह कि जब किसी जीवका संसार-वास अल्प रह जाता है, (जिसे कि