________________
प्रथम अध्याय
-
२७
__.यदक्षविषयं रूपं मद्रपात्तद्विलक्षणम् ।
आनन्दनिर्भरं रूपमन्तज्योतिर्मयं मम ॥१४॥ . - जो यह इन्द्रियोंके विषयात्मक रूप है, वह मेरे आत्मस्वरूपसे विलक्षण है--भिन्न है। मेरा रूप तो आनन्दसे भरा हुआ अन्तज्योतिमय है ॥१४॥ .. भावार्थ- मेरी आत्माका स्वरूप तो चेतनात्मक-सत्-चित्
आनन्दमय है, अर्थात् ज्ञान-दर्शन-सुखरूप है और शरीर, तथा .. शरीरसे सम्बन्धित इन्द्रियोंका स्वरूप अचेतनात्मक है, ज्ञान-दर्श... नादिसे रहित जरूप है। अतः इस शरीरको, इन्द्रियोंको. और उनके विषयोंको आत्मस्वरूपसे सर्वथा भिन्न जाने। .
ज्ञान-दर्शनस आत्मा चैको ध्रुवो मम । .. शेषा भावाश्च मे वाह्याः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥१५॥ ... ज्ञान और दर्शनसे सम्पन्न मेरा यह आत्मा सदा एक अखण्ड,
ध्रुव, अविनाशी और अमर है। इसके अतिरिक्त जितने बाहरी - पदार्थ हैं, वे सब मेरेसे भिन्न हैं और नदी-नाव-संयोगके समान
कर्म-संयोगसे प्राप्त हुए हैं। इसलिए मुझे पर पदार्थोंमें राग-द्वेषको छोड़कर एकमात्र अपनी आत्मामें ही अनुराग करना चाहिए ॥१५॥ .. बहिर्भावानति यस्यात्मन्यात्मनिश्चयः । ... सोऽन्तरात्मा मतस्तविभ्रमध्वान्तभास्करैः ॥१६॥
उपर्युक्त प्रकारसे जो जीव बाहरी भावोंका-पदार्थों का.-- परित्याग करके अपनी आत्मामें ही आत्माका निश्चय करता है, उसे विभ्रमरूप अन्धकारको दूर करनेमें समर्थ सूर्यके समान ज्ञानी जनोंने अन्तरात्मा कहा है ॥१६॥ . . . . ..