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जैनधर्मामृत ___ आत्म-दर्शन होने पर आत्माकी प्रवृत्ति कैसी हो जाती है, इस बातको वतलाते हैं
समः शत्रौ च मित्रे च समो मानापमानयोः ।
लाभालाभे समो नित्यं लोष्ठ-काञ्चनयोस्तथा ॥१७॥ जिसे आत्म-दर्शन हो जाता है, वह अन्तरात्मा शत्रु और मित्र पर सम-भावी हो जाता है, उसके लिए मान और अपमान समान बन जाते हैं, वह सांसारिक वस्तुओंके लाभ या अलाभमें समान रहने लगता है और लोष्ठ-कांचनको सम-दृष्टिसे देखने लगता है ||१७||
भावार्थ-जिस व्यक्तिको आत्माका साक्षात्कार हो जाता है उसकी दृष्टि में न कोई शत्रु रहता है और न कोई मित्र रहता है, सब समान हो जाते हैं। इसका कारण यह है कि उसे यह निश्चय हो जाता है कि मेरे ही पाप कर्मके उदयसे दूसरे लोग मेरे साथ शत्रुताका व्यवहार करते हैं और मेरे ही पुण्य कर्मके उदयसे दूसरे लोग मेरे साथ मित्रताका व्यवहार करते हैं। ऐसी दशामें दूसरा व्यक्ति न मेरा शत्रु है और न मित्र है; किन्तु मेरे ही भले-बुरे कर्म मेरे लिए सुख-दुःखके दाता हैं। इसी प्रकार अन्तरात्मा दूसरेके द्वारा किये गये सन्मान या अपमानमें भी हर्ष-विषादका अनुभव नहीं करता; क्योंकि वह अपने ही शुभ-अशुभ कार्योंको मानअपमानका मूल कारण समझता है। यही बात बाहिरी वस्तुओंके लाभ-अलाभमें और स्वर्ण-पाषाणके विषयमें भी जानना चाहिए।
अन्तरात्माके भेद . अन्तरात्मा त्रिधा क्लिष्टमध्यमोत्कृष्टभेदतः । असंयतो जघन्यः स्यान्मध्यमौ द्वौ तदुत्तरौ ॥१८॥