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जैनधर्मामृत भावार्थ-वहिरात्माके अपने आत्माकी भलाई-बुराईका परिज्ञान नहीं होता है, इसलिए वह आत्माके परम शत्रुस्वरूप इन्द्रियविषयोंको बड़े चावसे सेवन करता है । ऐसा बहिरात्मा प्राणी सांसारिक वस्तुओंको प्राप्त करने के लिए निरन्तर छटपटाता रहता है और अनेक निरर्थक आशाओंको करता रहता है। राक्षसी और आसुरी वृत्तिको धारण करता है, प्रमादी, आलसी और अतिनिद्रालु होता है, क्रोध, मान, माया, दम्भ और लोभसे युक्त होता है। कामसेवनमें आसक्त एवं भोगोपभोगके साधन जुटानेमें संलग्न रहता है
और सोचा करता है कि आज मैंने यह पा लिया है, कल मुझे यह प्राप्त करना है, मेरे पास इतना धन है, और आगे मैं इतना कमाऊँगा । मेरा अमुक शत्रु है, मैंने अमुक शत्रुको मार दिया है और अमुकको अभी मारूँगा । मैं ईश्वर हूँ, स्वामी हूँ, ये सब मेरे सेवक और दास हैं। मेरे समान दूसरा कौन है, मैं कुलीन हूँ, और ये अकुलीन हैं, इस प्रकारके विचारोंसे यह वहिरात्मा प्राणी सदा घिरा रहता है।
अन्तरात्मा वननेका उपाय मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः ।
त्यक्त्वनां प्रविशेदन्तर्वहिरव्यावृतेन्द्रियः ॥१३॥ इस जड़ पार्थिव देहमें आत्म-बुद्धिका होना ही संसारके दुःखका मूल कारण है, अतएव इस मिथ्या वुद्धिको छोड़कर और बाह्य विषयोंमें दौड़ती हुई इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिको रोककर अन्तरङ्गमें प्रवेश करे। अर्थात् ज्ञान-दर्शनात्मक अन्तर्योतिमें आत्म-बुद्धि करे, उसे अपनी आत्मा माने ॥१३॥