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प्रथम अध्याय
स्वपराध्यवसायेन देहेष्वविदितात्मनाम् । वर्तते विभ्रमः पुंसां पुत्र - भार्यादिगोचरः ॥ ॥
'यह मेरी आत्मा है और यह परकी आत्मा है'. इस प्रकार शरीरोंमें स्व-परका आत्म-विषयक निश्चय होनेसे आत्म-स्वरूपानभिज्ञ बहिरात्मा पुरुषोंके पुत्र- स्त्री - माता- पितादिके सम्बन्ध - विषयक विभ्रम या मोह उत्पन्न होता है ॥ ९ ॥
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भविद्यासंज्ञितस्तस्मात् संस्कारो जायते दृढः । येन: लोकोऽङ्गमेव स्वं पुनरप्यभिमन्यते ॥१०॥ उस विभ्रम या मोहसे अविद्या नामका संस्कार दृढ़ होता है, जिसके कारण अज्ञानी लोग जन्मान्तरमें भी शरीरको ही आत्मा मानते हैं ॥१०॥
देहेष्वात्मधिया जाताः पुत्र- भार्यादिकल्पनाः । . सम्पत्तिमात्मनस्ताभिर्मन्यते हा हतं जगत् ॥११॥ शरीरोंमें आत्म- बुद्धिके होनेसे 'यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है' इत्यादि नाना प्रकारकी कल्पनाएँ उत्पन्न होती हैं और उनके कारण स्त्री- पुत्रादिको यह बहिरात्मा प्राणी अपने आत्माकी सम्पत्ति मानने लगता है । अत्यन्त दुःखकी बात है कि इस प्रकार यह सारा जगत् विनष्ट हो रहा है ॥ ११ ॥
हेयोपादेय वैकल्यान्न च वेत्यहितं हितम् ।
निमग्नो विपयाक्षेषु वहिरात्मा विमूढधीः ॥ १२॥ यतः मूढ़-बुद्धि वहिरात्माको हेय और उपादेयका विवेक नहीं होता, अतः वह अपने हित और अहितको नहीं समझता है । यही कारण है कि यह मूढात्मा पाँचों इन्द्रियोंके विषयों में सदा निमग्न रहता है ॥१२॥