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________________ पि चतुर्दश अध्याय 315. भावार्थ-जो जिसकी सच्चे हृदयसे निरन्तर आराधना और उपासना किया करता है, वह तद्रूप हो जाता है। . मात्माका चिन्तन या आराधन करनेसे आत्मा कैसे परमात्मा बन जाता है, आचार्य इस बातको भी उदाहरण-द्वारा . स्पष्ट करते हैं उपास्यात्मानमेवात्मा जायते परमोऽथवा। मथित्वाऽऽत्मानमात्मैव जायतेऽग्निर्यथा तरुः // 126 // . ' .. अथवा, यह आत्मा अपनी शुद्ध चिदानन्द रूप आत्माकी ' ही उपासना करके परमात्मा बन जाता है। जैसे बांसका वृक्ष, अपनेको अपनेसे ही रगड़कर अग्निरूप हो जाता है // 126 // . 'कथनका उपसंहार करते हुए उपदेश इतीदं भावयेन्नित्यमवाचां गोचरं पदम् / स्वत एवं तदाप्नोति यतो नावर्तते पुनः // 127 // इस प्रकार आत्मस्वरूपकी निरन्तर भावना करनी चाहिए। ऐसा करनेसे यह जीव स्वयं ही वचनोंके अगोचर उस परम पदको प्राप्त कर लेता है, जिससे कि पुनः नहीं लौटना पड़ता है // 127 // भावार्थ-आत्म-स्वरूपकी निरन्तर भावनासे पुनरागमनरहित मुक्तिकी प्राप्ति होती है, इसलिए ज्ञानी पुरुषोंको निरन्तर सावधान होकर और बाहरी पदार्थोंसे मुखको मोड़कर एकाग्र चित्त से आत्माके स्वरूपका चिन्तवन, मनन एवं ध्यान करते रहना चाहिए / परम शान्ति, या निर्वाण-प्राप्तिका यही एक मार्ग है और बाहरी जितना भी व्रत, तप, संयम आदिका उपदेश दिया गया है. वह एकमात्र इस चरम आदर्शरूप लक्ष्यको समझनेके लिए और
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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