________________ 316 जैनधर्मामृत बाहा पदार्थासे मोह-निवृत्तिके लिए दिया गया है। पर अन्तिम प्रयोजनभूत पदार्थ तो अपना आत्मा ही है, उसकी प्राप्तिके लिए, आत्मसाक्षात्कारके लिए जब तक मनुष्य उद्यत नहीं होता, तब तक वह संसारमें ही परिभ्रमण करता रहता है और जब विवेकको प्राप्त कर, आत्माके स्वरूपकी एकाग्र चित्तसे भावना-आराधना और उपासनामें तल्लीन हो जाता है, तो उसको आत्माका परम पद हस्तगत हो जाता है, जहाँ पर कि यह अनन्तानन्त काल तक उत्कृष्ट सुख-शान्तिका अनुभव करता रहता है, इसलिए आत्मकल्याणके इच्छुक जनोंको उचित है कि यह उत्तम ममुप्य भव पाकर उसे अन्तमें दुःख देनेवाले सांसारिक पदोंके पाने और विषय-भोगोंके जुटाने में व्यर्थ न गमा किन्तु एक-एक क्षण को .. स्वर्ण-कोटियोंसे भी अधिक मूल्यवान् समझकर आत्मस्वरूपकी प्राप्तिमें व्यय करें। इस प्रकार आत्मासे परमात्मा बननेका उपाय-अतिपादक चौदहवाँ अध्याय समाप्त हुआ।