________________ चतुर्दश अध्याय 'आत्मानुभवी अन्तरात्माको मोहाक्रान्त बहिरात्माकी सभी अवस्थाएँ भ्रमरूप प्रतीत होती हैं / / 121 // भेद-विज्ञानके विना सर्व शास्त्रोंका ज्ञाता भी मुक्त नहीं हो सकता.- . . विदिताशेपशास्त्रोऽपि न जाग्रदपि मुच्यते / ... देहारमदृष्टिातात्मा सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्यते // 122 // देहमें आत्मदृष्टि रखनेवाला अज्ञानी जीव सम्पूर्ण शास्त्रोंका जानने वाला होकर भी तथा जागता हुआ भी कर्मबन्धनसे नहीं छूट सकता। किन्तु आत्माके स्वरूपका ज्ञाता पुरुष सोता और उन्मत्त हुआ भी कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है, क्योंकि उन अवस्थाओंमें भी ज्ञानी पुरुषके विवेकका अभाव नहीं होता है और आत्मानुभवकी परम्परा निराबाध चलती रहती है // 122 // / सुप्त या उन्मत्त भी ज्ञानी पुरुष कैसे मुक्ति प्राप्त कर लेता है __ यत्रैवाहितधीः पुंसः श्रद्धा तत्रैव जायते / ___ यत्रैव जायते श्रद्धा चित्तं तत्रैव लीयते // 123 // . जिस विषयमें पुरुषकी बुद्धि लगी रहती है, उसी विषयमें उसकी श्रद्धा उत्पन्न होती है और जिस विषयमें श्रद्धा उत्पन्न .. होती है, उस विषयमें ही मनुष्यका चित्त लवलीन हो जाता है // 123 // . . . भावार्थ-आत्माके..विषयमें चित्तकी यह संलग्नता ही सुप्त और उन्मत्त आदि अवस्थाओंमें भी अन्तरात्माको उस ओरसे परान्मुख नहीं होने देती, इसलिए ज्ञानी पुरुष सोतेमें भी आत्मसम्बन्धी स्वप्न देखता है, और दैववशात् पागल हो जानेपर भी आत्मा