________________ 312 जैनधर्मामृत उक्त कथनका आगेके श्लोकसे स्पष्टीकरण जातिलिङ्गविकल्पेन येषां च समयाग्रहः / तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव परमं पदमात्मनः / / 11 / / जिन जीवोंका, जाति और लिंगके विकल्पसे मुक्ति होती है, . ऐसा आगम-सम्बन्धी आग्रह है, वे पुरुष भी आत्माके परम पदको प्राप्त नहीं कर सकते // 119 // भावार्थ-जिन पुरुषोंका ऐसा आग्रह है कि अमुक जाति और अमुक वेषवाला ही मोक्षका अधिकारी है, अन्य नहीं, और अपने इस दुराग्रहकी पुष्टिके लिए आगमकी दुहाई देते हैं, वे पुरुष मोक्ष नहीं प्राप्त कर पाते। क्योंकि जाति और लिंग रूप संसारका आग्रह रखनेवाला कैसे संसारसे छूट सकता है। यत्त्यागाय निवर्तन्ते भोगेभ्यो यदवाप्तये / प्रीति तत्रैव कुर्वन्ति द्वेपमन्यत्र मोहिनः // 120 // ज्ञानी जीव जिस शरीरके त्याग करनेके लिए तथा मोक्षके प्राप्त करनेके लिए विषयभोगोंसे निवृत्त होते हैं, मोही जीव उन्हीं शारीरिकभोगोंमें प्रीति करते हैं और परम-पढ़ मोक्षमें द्वेष करते हैं, यह बड़े आश्चर्यकी बात है // 120 // ज्ञानी-अज्ञानीकी अनुभूतिका निरूपण सुप्तोन्मत्ताद्यवस्थैव विभ्रमोऽनात्मदर्शिनाम् / विभ्रमोऽक्षीणदोपस्य सर्वावस्थाऽऽस्मदर्शिनः // 121 // ____ आत्मस्वरूपके यथार्थ ज्ञानसे हीन अज्ञानी जीवोंको केवल सोने या उन्मत्त होनेकी अवस्था ही भ्रमरूप प्रतीत होती है, किन्तु /