SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ‘चतुर्दश अध्याय जिस प्रकार व्रतोंका विकल्प मोक्षका कारण नहीं हो सकता, उसी प्रकार लिंग या वेपका विकल्प भी मोक्षका कारण नहीं हो .. सकता, ऐसा प्रतिपादन करते हैं . लिङ्गं देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भवः / न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये लिङ्गकृताग्रहाः // 117 // जटा धारण करना, अथवा नग्न रहना आदि लिंग ( वेष) शरीरके आश्रित देखा जाता है और शरीर ही आत्माका संसार है, इसलिए जिनको लिंगका ही आग्रह है, अर्थात् बाह्य वेष धारण करनेसे ही मुक्तिकी प्राप्ति होती है, ऐसा हठ है, वे पुरुष संसार से नहीं छूट पाते-उन्हें मुक्ति नहीं मिलती है // 117 // जो ऐसा कहते हैं कि 'सर्व वर्गों का गुरु ब्राह्मण है। इसलिए वही परम पद-मोक्षका अधिकारी है, वे भी संसारसे नहीं छूट पाते, ऐसा बतलाते हैं--- : 'जातिदेहाश्रिता दृष्टा देह एवात्मनो भवः / न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये जातिकृताग्रहाः // 11 // ब्राह्मण आदि जाति शरीरके आश्रित देखी जाती है और शरीर ही आत्माका संसार है। इसलिए जो जीव मुक्तिकी. प्राप्तिके लिए जातिका हठ पकड़े हुए हैं, वे भी संसारसे नहीं छुट सकते // 118 // . . . .. भावार्थ:-लिंग या वेषके समान जाति-वर्ण आदि भी शरीर के आश्रित हैं, इसलिए लिंग, जाति आदिका दुराग्रह रखनेवाले पुरुष मुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि, जाति, लिंगादि-सम्बन्धी आग्रह भी संसारका ही पोषक दुराग्रह है।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy