________________ जैनधर्मामृत व्रताव्रतके परित्यागका क्रम अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः। त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः // 11 // पहले हिंसादि पाँच रूप अत्तोंको छोड़ कर अहिंसादि व्रतोंमें . निष्णात बने / पुनः आत्माका परम पद प्राप्तकर उन व्रतोंको भी . छोड़ देवे // 11 // भावार्थ- आचार्योंने पहले पाप रूप अशुभ प्रवृत्तिको छोड़ने . का विधान किया है, पश्चात् पुण्य रूप शुभ प्रवृत्तिको भी छोड़कर . शुद्धोपभोग रूप वीतराग भावके आश्रय करनेका उपदेश दिया है। अतः आत्मकल्याणके इच्छुक जनोंको इसी मार्गका अनुसरण करना चाहिए। अन्तरंगमें उठनेवाले संकल्प-विकल्प ही दुःखके मूल कारण यदन्तर्जल्पसंप्रक्तमुत्प्रेक्षाजालमात्मनः / मूलं दुःखस्य तन्नाशे शिष्टमिष्टं परं पदम् // 15 // . अन्तरंगमें वचन-व्यापारको लिये हुए जो अनेक प्रकारकी कल्पनाओंका जाल है, वही आत्माके दुःखका मूल कारण है। उस कल्पना-जालके नाश होने पर अपने इष्ट परम पदक्री प्राप्ति होती है // 11 // आत्माके उत्तरोत्तर विकासका क्रम अव्रती ब्रतमादाय व्रती ज्ञानपरायणः / परात्मज्ञानसम्पन्नः स्वयमेव परो भवेत् // 116 // अव्रती पुरुष व्रतको ग्रहण करके व्रती बने / पुनः वह व्रती आत्मज्ञानमें परायण होकर परमात्माके ज्ञानसे सम्पन्न होवे / ऐसा करनेसे यह आत्मा स्वयं ही परमात्मा बन जाता है // 116 //