________________ - चतुर्दश अध्याय 301 ज्ञानके सली भाँति अभ्यस्त हो जानेपर वही जगत् काष्ठ-पाषाणके / समान चेष्टा-रहित दिखाई देने लगता है // 110 // जब तक शरीरसे आत्म-भिन्नताकी भावना नहीं की जायगी, तब तक जीव मुक्ति नहीं पा सकता शृण्वन्नप्यन्यतः कामं वदन्नपि कलेवरात् / नात्मानं भावयेद्भिन्नं यावत्तावन्न मोक्षभाक् // 11 // आत्मस्वरूपको अन्यसे सुनते हुए तथा अन्यको अपने मुखसे भली भाँति बोलते हुए भी जब तक शरीरसे आत्माको भिन्न नहीं भाया जाता है, तब तक वह मोक्षका पात्र नहीं हो सकती है।।१११॥ भेद-विज्ञानीका कर्तव्य तथैव भावयेदेहाद् व्यावृत्त्यात्मानमात्मनि / यथा न पुनरात्मानं देहे स्वप्नेऽपि योजयेत् // 112 // शरीरसे आत्माको भिन्न करके अपनी आत्मामें आत्माकी उस . प्रकार दृढ़तासे भावना करे कि जिससे यह आत्मा पुनः स्वनमें भी शरीरमें आत्माकी कल्पना न कर सके / / 112 // परम पदके अभिलाषियोंके लिए पुण्यजनक व्रत और पापजनक अव्रत दोनों ही त्याज्य हैं अपुण्यमवतैः पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोय॑यः। . . अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् // 113 // हिंसादि अव्रतोंके सेवनसे पापका संचय होता है, अहिंसादि व्रतोंके सेवनसे पुण्यका संचय होता है और पुण्य व पापके छोड़ने से मोक्ष प्राप्त होता है / इसलिए मोक्षके इच्छुक पुरुषको चाहिए कि अव्रतोंके समान व्रतोंको भी छोड़ देवे // 113 // . ..