________________ जैनधर्मामृत __आत्मस्वरूपमें ही जिसकी दृढ़ आत्मवुद्धि है, ऐसा ज्ञानी पुरुप शरीरकी गति-आगतिको आत्मासे भिन्न मानता है, इसलिए शरीरवियोगका अवसर आनेपर एक वस्त्रको छोड़कर दूसरे वस्त्रको धारण करनेके समान निर्भय होकर शरीरको छोड़ देता है // 107 // ज्ञानी-अज्ञानीकी जागृत-सुप्त दशाका वर्णन व्यवहारे सुपुप्तो यः स जागांत्मगोचरे। . जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे // 108 / / जो ज्ञानी पुरुष लौकिक व्यवहारमें सोता है वह आत्माके विषयमें जागता है और जो इस लोकव्यवहारमें जागता है, वह आत्माके विषयमें सोता है // 10 // भेद-विज्ञानसे ही मुक्तिकी प्राप्ति आत्मानमन्तरे दृष्ट्वा दृष्ट्वा देहादिकं बहिः / तयोरन्तरविज्ञानादभ्यासादच्युतो भवेत् // 10 // अन्तरंगमें आत्माके वास्तविक स्वरूपको देखकर और बहिरंग . . . में शरीरादिक परपदार्थोंको देखकर उन दोनोंके भेद-विज्ञानसे तथा अभ्याससे यह आत्मा अच्युत होता है अर्थात् मुक्ति प्राप्त करता है // 109 // . अब आचार्य बतलाते हैं कि भेद विज्ञानके होने पर पहले और तत्पश्चात् जीवको जगत् कैसा प्रतीत होता है पूर्व दृष्टात्मतत्त्वस्य विभात्युन्मत्तवजगत् / . . . स्वभ्यस्तात्मधियः पश्चात्काष्ठपापाणरूपवत् // 110 // . जिसने आत्मतत्त्वका साक्षात्कार कर लिया है, उस पुरुषको . पहले तो यह जगत् उन्मत्त सरीखा दिखाई देता है / पश्चात् आत्म