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________________ चतुर्दश अध्याय इस शरीरमें आत्माकी भावना करना ही नये नये शरीर धारण करनेका बीज है, अर्थात् संसार बढ़ानेका कारण है और आत्मामें आत्माकी ही भावना करना विदेहनिष्पत्ति अर्थात् मोक्षप्राप्तिका बीज है // 10 // . . वस्तुतः आत्माका गुरु आत्मा ही है। नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव वा! .. ___ गुरुरात्मात्मनस्तस्मानान्योऽस्ति परमार्थतः / / 105 // ... आत्मा ही अपनो अज्ञान-बुद्धिके द्वारा अपने आपको जन्ममरणरूप संसार-समुद्र में ले जाता है और आत्मा ही अपनी विवेकबुद्धिके द्वारा निर्वाणरूप परम निःश्रेयसमें ले जाता है, इसलिए निश्चयसे आत्माका गुरु आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं // 10 // अज्ञानी जीव ही मरणसे डरता है. दृढ़ात्मबुद्धिदेहादावुत्पश्यन्नाशमात्मनः / . . . मित्रादिभिर्वियोगं च विभेति मरणाद् भृशम् // 106 // : . शरीरादिकमें जिसकी आत्मबुद्धि दृढ़ है ऐसा अज्ञानी पुरुष अपने शरीरके नाशको और मित्रादिकके साथ वियोगको देखता हुआ मरणसे अत्यन्त डरता है // 106 // . किन्तु ज्ञानी तो मरणको वस्त्र-परिवर्तन जैसा मानता है . भात्मन्येवात्मधारन्यां शरीरगतिमात्मनः। . . . . .. मन्यते निर्भयं त्यक्त्वा वस्त्रं वस्त्रान्तरग्रहम् // 10 // 1. वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि / तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही / / -भगवद्गीता
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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