________________ जैनधर्मामृत जन-सम्पर्कसे होनेवाले अनर्थ एवं योगीको उससे दूर रहनेका उपदेश जनेभ्यो वाक् ततः स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रमाः। भवन्ति तस्मात्संसर्ग जनर्योगी ततस्त्यजेत् // 102 // लोगोंके संसर्गसे वचनकी प्रवृत्ति होती है, वचनकी प्रवृत्तिसे मनमें चंचलता होती है। मनकी चंचलतासे मनमें नाना प्रकारके संकल्प-विकल्प उत्पन्न होते हैं। इसलिए योगी पुरुष लौकिक जनोंके संसर्गका त्याग करे // 102 / / क्या योगी मनुष्योंका संसर्ग छोड़कर वनमें वास करे? ... ग्रामोऽरण्यमिति द्वेधा निवासोऽनात्मदर्शिनाम् / दृष्टात्मनां निवासस्तु विविक्तात्मैव निश्चलः / / 103 // आत्मस्वरूपके साक्षात्कारसे रहित अज्ञानी जीवोंको 'यह ग्राम है', 'यह अरण्य (वन) है' इन दो प्रकारके निवासोंकी कल्पना होती है। किन्तु आत्माके साक्षात्कार करनेवाले ज्ञानीजनोंका तो रागादि-रहित निश्चल आत्मा ही निवासस्थान है // 10 // भावार्थ-ध्यानके प्रारम्भिक अभ्यासीके लिए ही यह उपदेश है कि वह जन-सम्पर्कसे दूर रहे अर्थात् एकान्त वन आदिमें निवास करे। किन्तु जिन्हें ध्यानका अभ्यास अच्छी तरह हो गया है, वे तो कहीं भी रहें, सदा ही आत्मस्वरूपकी ओर जागृत रहते हैं, उनपर जन-सम्पर्कका प्रभाव नहीं पड़ता। संसार और मोक्षके बीज देहान्तरगते/जं देहेऽस्मिन्नात्मभावना / वीजं विदेहनिष्पत्तरात्मन्येवात्मभावना // 10 //