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________________ Sarissमानं न घाबुधः // 6 // द्विमान् चतुर्दश अध्याय - जब तक शरीर, वचन और मन इन तीनोंको आत्मवुद्धिसे ग्रहण किया जाता है, तभी तक संसार है और जब आत्मासे इन तीनोंकी भिन्नताका अभ्यास हो जाता है, तब मुक्ति प्राप्त होती है // 12 // ज्ञानी शरीरके पुष्ट होनेसे आत्माको पुष्ट नहीं मानते . घने वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न घनं मन्यते तथा / घने स्वदेहेऽप्यात्मानं न धनं मन्यते बुधः // 13 // जिस प्रकार सघन या मोटा वस्त्र पहिन लेने पर बुद्धिमान् पुरुष अपने शरीरको मोटा नहीं मानता है, उसी प्रकार अपने शरीरके भी पुष्ट होने पर ज्ञानी पुरुष अपनेको पुष्ट नहीं मानता // 93 // . . . . ज्ञानी शरीरके जीर्ण होनेपर आत्माको जीर्ण नहीं मानता जीणे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न जीणं मन्यते बुधः। जीर्णे स्वदेहेऽप्यात्मानं न जीर्ण मन्यते बुधः // 14 // जिस प्रकार पहने हुए वस्त्रके जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर विद्वान् पुरुष अपने शरीरको जीर्ण हुआ नहीं मानता है, उसी प्रकार अपने शरीरके भी जीर्ण होनेपर विद्वान् अपनी आत्माको जीर्ण हुआ नहीं मानता / / 94 // ज्ञानी शरीरके रक्त वर्ण होनेपर भी आत्माको वैसा नहीं मानता रक्त वस्त्रे यथाऽस्मानं न. रक्तं मन्यते बुधः। . रक्ते स्वदेहेऽप्यात्मानं न रक्तं मन्यते बुधः // 65 // . जिस प्रकार पहने हुए वस्त्रके लाल होनेपर ज्ञानी पुरुष अपने शरीरको लाल वर्णका नहीं मानता है, उसी प्रकार अपने शरीरके __
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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