________________ 302 जैनधर्मामृत अनुभव करनेयोग्य मैं हूँ वह भी दूसरे जीवोंके उपदेश द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं हूँ, क्योंकि शब्दोंके द्वारा उसका प्रतिपादन सम्भव नहीं है। वह तो स्वसंवेदनके द्वारा ही अनुभव करनेके योग्य है। इसलिए दूसरे जीवोंको मैं क्या समझाऊँ ? ||8|| अज्ञानीकी वहिर्मुखी प्रवृत्तिका कथन वहिस्तुप्यति मूढात्मा पिहितज्योतिरन्तरे ! तुप्यत्यन्तः प्रबुद्धारमा बहियावृत्तकौतुकः // 30 // * अन्तरंगमें जिसकी ज्ञानज्योति मोहसे आच्छादित हो रही है-ऐसा अज्ञानी बाह्य शरीरादि परपदार्थों में ही संतुष्ट रहता है और उनमें ही आनन्द मानता है। किंतु मिथ्यात्वके * अभावसे प्रबोधको प्राप्त ज्ञानी वाह्य शरीरादि पदार्थोंमें अनुराग-रहित होकर अपने अन्तरंग आत्मस्वरूपमें ही सन्तोष पाता है // 10 // परपदार्थोके निग्रह या अनुग्रहकी बुद्धि न जानन्ति शरीराणि सुखदुःखान्यबुद्धयः / निग्रहानुग्रह धियं तथाप्यत्रैव कुर्वते // 6 // ये शरीर सुखों तथा दुःखोंको नहीं जानते हैं, तो भी अज्ञानी जीव इन शरीरोंमें ही, उपवास आदिद्वारा दण्डरूप निग्रहकी और अलंकारादि द्वारा अलंकृत करने रूप, अनुग्रहकी बुद्धि धारण करते हैं // 9 // जीवकी सांसारिक स्थिति और उससे मुक्ति स्वबुद्धया यावद् गृह्णीयात् कायवाक्चेतसां त्रयम् / संसारस्तावदेतेपां भेदाभ्यासे तु निर्वृतिः // 32 //