________________ चतुर्दश अध्याय 301 जड़ताको प्राप्त हो रहे हैं। यदि कदाचित् संज्ञी प्राणियोंमें उत्पन्न होकर कदाचित् जागते भी हैं तो सर्वथा भिन्न स्त्री-पुत्रादिकमें 'ये मेरे हैं' और अनात्मभूत शरीरादिकोंमें 'म ही इनरूप हूँ' ऐसा अध्यवसाय करने लगते हैं // 86 // अध्यवसायको छुड़ानेके लिए मार्ग पश्येन्निरन्तरं देहमात्मनोऽनात्मचेतसा / अपरात्मधियाऽन्येपामात्मतत्वे व्यवस्थितः // 8 // ज्ञानीको चाहिए कि अपने आत्मस्वरूपमें स्थित होकर अपने शरीरको 'यह शरीर मेरा आत्मा नहीं' ऐसी अनात्मबुद्धिसे सदा देखे–अनुभव करे और दूसरे प्राणियोंके शरीरको 'यह शरीर परका आत्मा नहीं' ऐसी अनात्म बुद्धिसे सदा अवलोकन करे / / 87 // त्मिानुभव-मग्न अन्तरात्माके विचार अज्ञापितं न जानन्ति यथा मां ज्ञापितं तथा / मूढात्मानस्ततस्तेपां वृथा मे ज्ञापनश्रमः // 8 // * जैसे ये अज्ञानी जीव बिना बताये हुए मेरे आत्मस्वरूपको नहीं जानते हैं वैसे ही बतलाये जानेपर भी नहीं जानते हैं, इसलिए उन मूढ़ पुरुषोंको बतलानेका मेरा परिश्रम व्यर्थ है // 48 // . ... उक्त कथनका स्पष्टीकरण . . यद्बोधयितुमिच्छामि तन्नाहं यदहं पुनः / : ग्राह्यं तदपि नान्यस्य तत्किमन्यस्य बोधये // 6 // जिस आत्मस्वरूपको शब्दोंके द्वारा दुसरेको समझानेकी मैं इच्छा करता हूँ, वह मैं नहीं हूँ, और जो ज्ञानानन्दमय, स्वयं .