________________ 300 जैनधर्मामृत ज्ञानी अज्ञानीकी मनःस्थितिका विश्लेषण शरीरे वाचि चात्मानं सन्धत्ते वाक्शरीरयोः / भ्रान्तोऽभ्रान्तः पुनस्तत्त्वं पृथगेषां निबुध्यते // 8 // वचन और शरीरमें जिसकी भ्रान्ति हो रही है जो उनके वास्तविक स्वरूपको नहीं समझता ऐसा अज्ञानी वचन और शरीरमें आत्माका अध्यास करता है अर्थात् वचन और शरीरको आत्मा मानता है। किन्तु वचन और शरीरमें आत्माकी भ्रान्ति न रखने वाला ज्ञानी पुरुष इस शरीर और वचनके स्वरूपको आत्मासे भिन्न ही मानता है / / 84 // अब आचार्य बतलाते हैं कि इन्द्रियोंके विषयोंमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो आत्माके लिए श्रेयस्कर हो, किन्तु अज्ञानी फिर भी उनमें ही रमा रहता है न तदस्तीन्द्रियार्थेषु यत्क्षेमकरमात्मनः / ___ तथापि रमते स्तनवाज्ञानभावनात् // 85 // पाँचो इन्द्रियोंके विषयोंमें ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जो . आत्माका भला करनेवाला हो, तो भी यह अज्ञानी जीव अनादि कालके अज्ञान भावनासे उत्पन्न संस्कारके कारण उन्हीं इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त रहता है // 8 // अनादिकालीन संस्कारका स्पष्टीकरण चिरं सुषुप्तास्तमसि मूढात्मानः फुयोनिषु / * अनात्मीयात्मभूतेषु ममाहमिति जाग्रति // 86 // ये मूढ़ अज्ञानी जीव अविद्यारूपी अन्धकारके उदयवश अनादि कालसे नित्य निगोदादिक कुयोनियोंमें सो रहे हैं और अतीव