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________________ चतुर्दश अध्याय 266 भव करता हूँ, वही मेरा वास्तविक स्वरूप है और वही सदा बना रहना चाहिए // 81 // अब आचार्य बतलाते हैं कि ध्यानाभ्यासकी प्रारम्भिक दशामें ही दुःखकी प्रतीति होती है, किन्तु पीछे तो परम सुखकी अनुभूति होने लगती है. सुखमारब्धयोगस्य बहिर्दुःखमथात्मनि / / बहिरेवासुखं सौख्यमध्यात्म भावितात्मनः // 2 // जिसने आत्मभावनाका अभ्यास करना अभी आरम्भ किया है, उस. योगीको. अपने पुराने संस्कारोंके कारण बाह्य-विषयोंमें सुख मालूम होता है और आत्मस्वरूपकी भावनामें दुःख प्रतीत होता है। किन्तु यथावत् आत्मस्वरूपको जानकर उसकी (दृढ़) भावना वाले योगीको वाह्य विषयोंमें दुःखकी प्रतीति होने लगती है और अपने आत्माके स्वरूपचिन्तनमें ही सुखकी अनुभूति होती है / / 8 / / ....... ज्ञानी आर वरूपकी भावना किस प्रकार करे ? . . . . : तद् ब्रूयात्तत्परान् पृच्छेत्तदिच्छेत्तत्परो भवेत् / . . . येनाऽविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् // 3 // ", उस आत्मस्वरूपका कथन करे-उसे दूसरोंको बतलावे, उस आत्मस्वरूपको दूसरे विशेष ज्ञानियोंसे पूछे, उस आत्मस्वरूपकी इच्छा करे और उस आत्म-स्वरूपकी भावनामें तत्पर हो; जिससे यह अज्ञानमय बहिरात्मरूप छूटकर ज्ञानमय परमात्मस्वरूपकी प्राप्ति होवे / / 83 / / .. .......... .... .......
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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