________________ 268 जैनधर्मामृत जगदेहात्मदृष्टीनां विश्वास्यं रम्यमेव च / स्वात्मन्येवात्मदृष्टीनां क विश्वासः क्व वा रतिः // 79 // शरीरमें आत्मदृष्टि रखनेवाले अज्ञानी मिथ्यादृष्टि बहिरात्माओं को यह स्त्री-मित्र-पुत्रादिका समूह रूप संसार विश्वासके योग्य और: रमणीय प्रतीत होता है। परन्तु अपने आत्मामें ही आत्मदृष्टि रखनेवाले ज्ञानी, सम्यग्दृष्टि अन्तरात्माओंको इन स्त्री-पुत्रादि परपदार्थोंमें कहाँ विश्वास हो सकता है और कहाँ आसक्ति हो सकती है ? कहीं भी नहीं ? इसलिए वह इनमें सदा अनासक्त ही रहता है // 79 // ज्ञानीको आत्माकी ओर अग्रेसर करनेके लिए मार्ग-दर्शन . आत्मज्ञानात्परं कार्य न बुद्धौ धारयेच्चिरम् / कुर्यादर्थवशात्किञ्चिद्वाक्कायाम्यामतत्परः // 20 // ज्ञानीको चाहिए कि वह आत्मज्ञानसे भिन्न दूसरे कार्यको अधिक समय तक अपनी बुद्धिमें धारण नहीं करे / यदि स्व-परके उपकारादि रूप प्रयोजनके वश वचन और कायसे कुछ करना ही . पड़े तो उसे अनासक्त होकर करे / यही संसारसे मुक्त होनेका मूल मन्त्रं है // 80 // ज्ञानी जीव क्या विचारता है यत्पश्यामीन्द्रियस्तन्मे नास्ति यन्नियतेन्द्रियः / .. अन्तः पश्यामि सानन्दं तदस्तु ज्योतिरुत्तमम् // 1 // . ज्ञानी विचारता है कि जिनं शरीरादि वाह्य पदार्थोंको मैं इन्द्रियोंके द्वारा देखता हूँ वह मेरा स्वरूप नहीं है किन्तु अन्तरंगों जिस उत्कृष्ट अतीन्द्रिय आनन्दमय ज्ञान-प्रकाशको देखता हूँ, अनु