________________ चतुर्दश अध्याय 297 कृत्य परमात्मा हैं उसके अन्तरंग और बहिरंग किसी भी पदार्थका न तो त्याग होता है और न ग्रहण ही होता है // 7 // ज्ञानी पुरुष अन्तरंगमें उत्पन्न होनेवाले भावोंका त्याग और / * ग्रहण किस प्रकार करे ? आचार्य इसके लिए मार्ग-प्रदर्शन करते हैं युञ्जीत, मनसाऽऽत्मानं वाक्कायाभ्यां वियोजयेत् / मनसा व्यवहारं तु त्यजेद्वाक्काययोजितम् // 7 // . आत्माको मनके साथ संयोजित करे--अर्थात् चित्त और आत्माका अभेदरूपसे अध्यवसाय करे, वचन और कायसे अलग करे, उन्हें आत्मा न समझे और वचन, कायसे किये हुए व्यवहारको मनसे छोड़ देवे, उसमें चित्तको न लगावे // 78 // . भावार्थ:-अन्तरंगमें उत्पन्न होनेवाले संकल्प-विकल्प और . राग-द्वेषादि औपाधिक भावोंका त्याग और ज्ञान-दर्शनादि स्वाभाविक भावोंका ग्रहण करनेके लिए ज्ञानीको चाहिए कि वह अपनी आत्माको शुद्ध मनके साथ तन्मय करे और वचन तथा कायसम्बन्धी सर्वकार्योंको छोड़कर आत्म-चिन्तनमें . तल्लीन हो। यदि परिस्थिति वश वचन और कायकी क्रिया करनी भी पड़े, तो अना- . सक्ति या उदासीन भावसे करे, किन्तु उसमें लिप्त न हो। इसी एक मार्गके द्वारा ज्ञानी अपने संकल्प-विकल्पोंपर विजय पा सकता है और आत्मासे परमात्मा बन सकता है।. . . अब आचार्य बतलाते हैं कि स्त्री-पुत्रादि और सांसारिक वैभव अज्ञानीको ही अच्छे लगते हैं, पर ज्ञानीको यह सब इन्द्रजाल-सा दिखाई देता है, इसलिए वह इनमें आसक्त नहीं होता.-:.