________________ 266 जैनधर्मामृत वशसे पुनरपि भ्रान्तिको प्राप्त हो जाता है अर्थात् आत्मस्वरूपसे च्युत हो जाता है |75 // भ्रान्तिको दूर करनेका उपाय अचेतनमिदं दृश्यमहश्यं चेतनं ततः / क रुप्यामि व तुष्यामि, मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः // 76 // आत्म-स्वरूपसे च्युत होने पर उसकी प्राप्तिके लिए ज्ञानी जीव ऐसा विचार करे-यह जो दृष्टिगोचर होनेवाला द्रव्यसमुदाय है वह सब अचेतन है, जड़ है और जो चैतन्य स्वरूप आत्मा है वह इन्द्रियोंके द्वारा दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए मैं किसपर रुष्ट होऊँ और किसपर सन्तुष्ट होऊँ, अतः अब तो मैं राग-द्वेषका परित्यागकर मध्यस्थभावको धारण करता हूँ // 6 // अव आचार्य अज्ञानी (बहिरात्मा) ज्ञानी (अन्तरात्मा) और पूर्णज्ञानी (परमात्मा) के त्याग और ग्रहणका स्पष्टीकरण करते हैं त्यागादाने बहिर्मूढः करोत्यध्यात्ममात्मवित् / - नान्तर्वहिरुपादानं न त्यागो निष्ठितात्मनः // 77 // मूढ, अज्ञानी या बहिरात्मा बाह्य पदार्थोंका त्याग और ग्रहण करता है अर्थात् द्वेषके उदयसे जिन्हें अनिष्ट समझता है उन्हें छोड़ देता है और रागके उदयसे जिन्हें इष्ट समझता है उन्हें ग्रहण कर लेता है / आत्म-स्वरूपका ज्ञाता ज्ञानी, या अन्तरात्मा अन्तरङ्गमें उत्पन्न होनेवाले राग-द्वेष या सङ्कल्प-विकल्पोंका त्याग करता है और अपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्ररूप . निजभावोंको ग्रहण करता है। किन्तुं शुद्धस्वरूपमें स्थित जो कृत