________________ . चतुर्दश अध्याय 265 _ 'परवाहम्मतिः स्वस्माच्च्युतो बध्नात्यसंशयम् / . : स्वस्मिन्नहम्मतिश्च्युत्वा परस्मान्मुच्यते बुधः // 73 // शरीरादिक परपदार्थोंमें जिसकी आत्मबुद्धि हो रही है ऐसा आत्मस्वरूपसे भ्रष्ट हुआ अज्ञानी निःसन्देह अपनेको कर्मवन्धनोंसे बाँधता है। किन्तु अपने आत्म-स्वरूपमें ही आत्म-बुद्धि रखने वाला ज्ञानी शरीरादिः परके सम्बन्धसे च्युत होकर: कर्मबन्धनोंसे मुक्त हो जाता है // 73 // ... .. ज्ञानी-अज्ञानीकी मनोवृत्तिका निरूपण ..:: 'दृश्यमानमिदं मूढस्त्रिलिङ्गमवबुध्यते / ... इदमित्यवंबुद्धस्तु निष्पन्नं शब्दवर्जितम् // 7 // . अज्ञानी जीव इस दिखाई देने वाले शरीरको स्त्री, पुरुष, नपुंसकके भेदसे यह आत्मतत्त्व त्रिलिंग रूप है ऐसा मानता है किन्तु आत्मज्ञानी पुरुष यह आत्मतत्त्व त्रिलिंगरूप नहीं है, वह अनादि संसिद्ध ज्ञायक स्वभाव है तथा, शब्दोंके अगोचर है अर्थात् नामादिक विकल्पोंसे रहित है, ऐसा मानता है // 74 // . ज्ञानी जीव भी पूर्व संस्कारके उदयसे बार-बार आत्मस्वरूपसे च्युत हो जाता है . जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि.। ..... ......... पूर्वविभ्रमसंस्काराद् भ्रान्ति भूयोऽपि गच्छति // 75 // .. . .. अपने आत्माके शुद्ध चैतन्य स्वरूपको जानता. हुआ भी और। शरीरादि अन्य परपदार्थोंसे भिन्न अनुभव करता हुआ भी ज्ञानी. जीव पहले अज्ञान-दशामें संचित किये हुए विपरीत संस्कारों के -- - --- - ------. . . .... ... . . .. . .. . . .