________________ 264 . जैनधर्मामृत हो। ऐसा करनेसे वाह्य शरीर और इन्द्रिय-विषयों में होने वाला प्रेम या रागभाव नष्ट हो जाता है ||70 // अब आचार्य सङ्कल्प-विकल्प-जनित दुःखके शान्त करनेका उपाय बतलाते हुए कहते हैं कि आत्म-ज्ञानके विना परम तपश्चरण करने पर भी मुक्तिकी प्राप्ति सम्भव नहीं है भारम-विभ्रमजं दुःखमात्मज्ञानात्प्रशाम्यति / नायतास्तत्र निर्वान्ति कृत्वापि परमं तपः // 7 // शरीरादिकमें आत्म-बुद्धिरूप विभ्रमसे उत्पन्न होने वाला दुःख आत्मज्ञानसे अर्थात् शरीरादिसे भिन्नरूप आत्मस्वरूपके अनुभव करनेसे शान्त हो जाता है। अतएव जो पुरुष भेद-विज्ञानके द्वारा आत्मस्वरूपकी प्राप्ति करनेमें प्रयत्न नहीं करते, वे उत्कृष्ट एवं दुद्धर तपको करके भी निर्वाणको प्राप्त करनेमें समर्थ नहीं होते हैं ||71 // ___ अब आचार्य बतलाते हैं कि तपश्चरण करके ज्ञानी और अज्ञानी क्या चाहता है- . . शुभं शरीरं दिव्यांश्च विषयानभिवान्छति / .. उत्पन्नात्ममतिदेहे तत्त्वज्ञानी ततश्च्युतिम् // 72 // . शरीरमें जिसको आत्म-बुद्धि उत्पन्न हो गई है ऐसा अज्ञानी बहिरात्मा तप करके सुन्दर शरीर और उत्तमोत्तम दिव्य विषय-भोगों को चाहता है। किन्तु ज्ञानी अन्तरात्मा. शरीर और तत्सम्बन्धी विषयोंसे छूटना चाहता है // 72 // ..: अब आचार्य बतलाते हैं कि परमें स्व-बुद्धि करनेसे: अज्ञानी . बँधता है और स्वमें स्व-बुद्धि करनेसे ज्ञानी छूटता है.--