________________ .. 263 चतुर्दश अध्याय भेद-विज्ञानरूप विद्याके संस्कारों द्वारा स्वयं ही आत्मस्वरूपमें अवस्थित हो जाता है // 6 // ... अब आचार्य बतलाते हैं कि विक्षिप्त चित्तवाला मनुष्य ही. अपमानादिका अनुभव करता है, अविक्षिप्त चित्तवाला नहीं-'.-.. - अपमानादयस्तस्य विक्षेपो यस्य चेतसः। . नापमानादयस्तस्य न क्षेपो यस्य चेतसः // 6 // जिसका चित्त विक्षिप्त है अर्थात् राग-द्वेषादिरूप परिणत हो रहा है उसीको अपमानादिका अनुभव होता है। जिसका चित्त विक्षिप्त नहीं है. उसको अपमान-तिरस्कारादिका अनुभव नहीं होता // 68 // . मान-अपमानके दूर करनेका उपाय ..... यदा मोहात्मजायते राग-द्वेषौ तपस्विनः। . .. तदैव भावयेत् स्वस्थमात्मानं शाम्यतः क्षणात् // 66 // जिस समय किसी तपस्वी योगीके मोहके उदयसे मान-अपमानजनित राग-द्वेष उत्पन्न होवें, उसी समय वह अपने स्वस्थ शुद्ध आत्मस्वरूपकी भावना करे / आत्मस्वरूपकी भावनासे वे रागद्वेषादिक क्षणभरमें शान्त हो जाते हैं // 69 // अब आचार्य शरीरमें रागभावके उत्पन्न होने पर उसके शान्त * करनेका उपाय बतलाते हैं ... यत्र काये मुनेः प्रेम ततः प्रच्याव्य देहिनम् / .. .. बुद्धया तदुत्तमे काये योजयेत्प्रेस नश्यति // 7 // जिस शरीरमें मुनिका अर्थात् ज्ञान अन्तरात्माका प्रेम-स्नेह या राग हो रहा है उसे भेद-विज्ञानके द्वारा आत्मासे पृथक् कर चिदानन्दमय उत्तम कायमें लगावे, अर्थात् आत्मस्वरूपमें उपयुक्त