________________ 262 जैनधर्मामृत तरंगोंसे चंचल नहीं होता वही पुरुष आत्माके यथार्थ स्वरूपको देखता है अर्थात् अनुभव करता है। उस आत्मतत्त्वको इतर जन अर्थात् राग-द्वेषादिकल्लोलोंसे आकुलित चित्तवाला मनुप्य नहीं देख सकता // 65 // अतः ज्ञानीको सदा मनके निर्विकल्प रखनेका प्रयास करना चाहिए भविक्षिप्तं मनस्तत्त्वं विक्षिप्तं भ्रान्तिरात्मनः / __धारयेत्तदविक्षिप्तं विक्षिप्तं नाश्रयेत्ततः // 66 // . रागादि परिणतिसे रहित तथा शरीर और आत्माको एक मानने रूप मिथ्या अभिप्रायसे रहित जो स्वरूपमें स्थिर मन है वही आत्माका वास्तविक रूप है, और रागादिरूप परिणत हुआ एवं शरीर तथा आत्माके भेद-ज्ञानसे शून्य मन है वह आत्माका विभ्रम है अर्थात् आत्माका निज स्वरूप नहीं है। इसलिए उस राग-द्वेषादिसे रहित अविक्षिप्त निर्विकल्प और प्रशान्त मनको धारण करना चाहिए और राग-द्वेषादिसे क्षुब्ध हुए मनको आश्रय नहीं देना चाहिए // 66 // क्योंकि सङ्कल्प-विकल्पोंसे मन विक्षिप्त होता है और निर्विकल्पतासे मन आत्मस्वरूपमें स्थिर होता है भविद्याभ्याससंस्काररवशं क्षिप्यते मनः / . . . तदेव ज्ञान-संस्कारैः स्वतस्तत्वेऽवतिष्ठते // 6 // - शरीरादिको शुचि, स्थिर और आत्मीय मानने रूप जो अविद्या या अज्ञान है, उसके पुनः पुनः प्रवृत्ति रूप अभ्याससे उत्पन्न हुए संस्कारों द्वारा. मन स्वाधीन न रहकर विक्षिप्त हो जाता है अर्थात् रागी-द्वेषी बन जाता है और वही मन आत्मा और देहके