________________ - चतुर्दश अध्याय 261 मैं अपने में ही स्थित ज्ञानस्वरूप परम आनन्दसे परिपूर्ण अपनी आत्माको पञ्चेन्द्रियोंके विषयोंसे छुड़ाकर अपने ही द्वारा आत्मस्वरूपको प्राप्त हुआ हूँ // 62 // . . . . . . . . . . स्व-परके विवेकसे रहित परम तपस्वी भी निर्वाणको नहीं पाता-. . . . . . . . यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम् / लभते स न निर्वाणं तप्त्वापि परमं तपः // 6 // उक्तप्रकारसे . जो अविनाशी आत्माको शरीरसे भिन्न नहीं जानता है वह घोर तपश्चरण करके भी मोक्षको प्राप्त नहीं कर पाता // 63 // . . . आत्मानन्दका अनुभव करने वाला घोर तपश्चरण-जनित दुःख को सहते हुए भी खेद-खिन्न नहीं होता- . - आत्मदेहान्तरज्ञानजनिताहादनिवृतः / . . . . . . ... तपसा दुष्कृतं घोरं भुञ्जानोऽपि न खिद्यते // 64aa. . . . आत्मा और शरीरके भेद-विज्ञानसे उत्पन्न हुए आनन्दसे जो आनन्दित है, वह द्वादश प्रकारके तपके द्वारो उदयमें आये भयानक दुष्कर्मोंके फलको भोगता हुआ भी खेदको प्राप्त नहीं होता है // 64 // . . . वीतरागी पुरुष ही आत्म-तत्त्वका साक्षात्कार कर सकता है, रागी-द्वेषी नहीं कर सकता-- . . . . . . ..रागद्वेपादिकल्लोलैरलोलं यन्मनो जलम् / ......... : .. स पश्यत्यात्मनस्तत्वं तत्तत्वं नेतरो जनः // 65 // , :: ... . जिसका मनरूपी जल राग-द्वेष-काम-क्रोध-मान-माया म-क्राध-मान-माया लोभादिक