________________ 260 जैनधर्मामृत मेरे हैं, मैं इनका हूँ' ऐसा विश्वास करता है, उन शरीर-स्त्री-पुत्रादि बाह्य पदाथोंसे बढ़कर और कोई भयका स्थान नहीं है, और जिस परमात्मस्वरूपके अनुभवसे वह भयभीत रहता है उसके सिवाय कोई दूसरा आत्माके लिए निर्भयताका स्थान नहीं है / / 59 / / शुद्ध आत्मस्वरूपको प्राप्तिका उपाय सर्वेन्द्रियाणि संयम्य स्तिमितेनान्तरात्मना / यत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्त्वं परमात्मनः // 6 // - सम्पूर्ण-पाँचों इन्द्रियोंको अपने विषयों में यथेष्ट प्रवृत्ति करनेसे रोककर मनको स्थिर करना चाहिए और उस स्थिर हुए मनके द्वारा क्षणमात्रके लिए अनुभव करनेवाले जीवके जो चिदानन्दस्वरूप प्रतिभासित होता है, वही परमात्माका स्वरूप है // 60 // - अब आचार्य शुद्ध आत्मा और परमात्मामें अभेद बतलाते हुए स्वात्माकी उपासनाका उपदेश देते हैं- . यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः / - अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः // 6 // . जो परमात्मा है, वह ही मैं हूँ, तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ, वही परमात्मा है इसलिए जब कि परमात्मा और आत्मामें अभेद है तो मैं ही मेरे द्वारा उपासना किये जाने योग्य हूँ। दूसरा कोई मेरा उपास्य नहीं है ? यही वास्तविक स्थिति है // 6 // ज्ञानी विचारता है कि विषय-भोगोंसे निज प्रवृत्ति हटाकर मैं परम ज्ञान और आनन्दमय स्वात्माको प्राप्त हुआ हूँ प्रच्याव्य विषयेभ्योऽहं मां मचैव मयि स्थितम् / वोधात्मानं प्रपन्नोऽस्मि परमानन्दनिवृतम् // 62 //