________________ अध्याय . चतुर्दश अध्याय 284 __ मेरा शत्रु है और न मित्र है। तथा मेरे आत्मस्वरूपको देखने __ वाला यह प्रबुद्ध प्राणिसमूह न मेरा शत्रु है और न मित्र है // 56 // ..' अव आचार्य बहिरात्म दशाको छोड़कर अन्तरात्मा बनने - और परमात्माकी भावना करनेका उपदेश देते हैं त्यक्त्वैवं बहिरात्मानमन्तरात्मव्यवस्थितः / भावयेत्परमात्मानं सर्वसङ्कल्पवर्जितम् // 57 // - इस प्रकार बहिरात्मपनेको छोड़कर अन्तरात्मामें स्थिर होते हुए सर्व संकल्प-विकल्पोंसे रहित परमात्माका ध्यान करना चाहिए // 57|| . , अब आचार्य बतलाते हैं कि परमात्मपदकी भावना करनेसे ही जीव आत्मस्वरूपमें स्थिरताको प्राप्त करता है. . . सोऽहमित्यात्तसंस्कारस्तस्मिन् भावनया पुनः। तत्रैव दृढ़संस्काराल्लभते ह्यात्मनि स्थितिम् / / 58 // __. उस परमात्मपदमें भावना करते रहनेसे वह अनन्त ज्ञान स्वरूप परमात्मा मैं हूँ इस प्रकारके संस्कारको प्राप्त हुआ ज्ञानी पुरुष पुनः पुनः उस. परमात्मपदमें आत्मस्वरूपकी भावना करता हुआ उसी परमात्मस्वरूपमें संस्कारकी दृढ़ताके हो जानेसे निश्चयतः अपने गुद्ध चैतन्यस्वरूपमें स्थिरताको प्राप्त होता है // 58 // ___ जो मूढात्मा आत्म-साधनाको आपत्तिका घर समझता है, पाचार्य उसे सम्बोधन करते हुए कहते हैं- मूढ़ात्मा यत्र विश्वस्तस्ततो नान्यद्भयास्पदम् / यतो भीतस्ततो नान्यदभयस्थानमात्मनः // 56 // अज्ञानी बहिरात्मा जिन शरीर, पुत्र, मित्रादि बाह्य पदार्थों में 'ये