________________ 288 जैनधर्मामृत आत्म-स्वरूपकी अनुभव-गम्यता यदभावे सुपुप्तोऽहं यदावे व्युत्थितः पुनः / अतीन्द्रियमनिर्देश्यं तत्स्वसंवेद्यमस्यहम् // 5 // जिस शुद्धात्म-स्वरूपकी प्राप्ति न होनेसे मैं अब तक मोह-निद्रा में सोता रहा और जिस शुद्धात्म स्वरूपकी प्राप्ति होने पर मैं जागृत हुआ हूँ अर्थात् यथावत् वस्तुस्वरूपको जानने लगा हूँ; वह शुद्धात्मस्वरूप अतीन्द्रिय है अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है और अनिर्देश्य है अर्थात् वचनादिके भी अगोचर है। वह तो केवल अपने द्वारा आप ही अनुभव करने योग्य है, उसी रूप मैं हूँ // 54 // भावार्थ-मेरा स्वरूप तो अतीन्द्रिय, अनिर्देश्य और स्वसंवेदन-गम्य है / ज्ञानी पुरुष विचारता है कि मैं ज्ञान स्वरूप हूँ, मेरा न कोई शत्रु है और न कोई मेरा मित्र है। . .तीयन्तेऽत्रैव रागाद्यास्तत्त्वतो.मां प्रपश्यतः। . . ___ बोधात्मानं ततः कश्चिन्न मे शत्रुर्न च प्रियः / / 55 // वस्तुतः ज्ञानस्वरूप निज अत्माको साक्षात् देखने अर्थात् अनुभव करने वाले मेरे इस जन्ममें ही राग, द्वेष, क्रोध, मान, मायादिक दोष नष्ट हो रहे हैं, अतः मेरा न कोई शत्रु है और न कोई मित्र है / / 55 // ज्ञानी विचारता है कि वस्तुतः संसारमें मेरा कोई शत्रु या * मित्र नहीं है- मामपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रियः। मां प्रपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रियः // 56 // मेरे आत्म-स्वरूपको नहीं देखने वाला यह अज्ञ प्राणिवृन्द न