________________ चतुर्दश अध्याय . 287 .. जिसे स्थाणुमें ( सूखे वृक्षके ,ठमें) पुरुषपनकी भ्रान्ति उत्पन्न हो गई है ऐसे मनुष्यकी जिस प्रकार विकृत अथवा विपरीत चेष्टा होती है, उसी प्रकारकी चेष्टा शरीरादि पर पदार्थोंमें आत्माका भ्रम होनेके कारण आत्मज्ञानसे पहले मेरी थी // 51 // और अब भेद-विज्ञान होनेपर मेरी चेष्टा किस प्रकारकी हो गई है यथासौ चेष्टते स्थाणौ निवृत्ते पुरुषाग्रहे / तथा चेप्टोऽस्मि देहादौ विनिवृत्तात्मविभ्रमः // 52 // जिसे स्थाणुमें पुरुषका भ्रम हो गया थां वह पुरुष स्थाणुमें 'यह पुरुष है। ऐसे मिथ्याभिनिवेशके निवृत्त हो जाने पर जिस प्रकार उससे अपने उपकारादिकी कल्पनाको त्यागनेकी चेष्टा करता है. उसी प्रकार शरीरादिकमें आत्मपनेके भ्रमसे रहित हुआ मैं भी देहादिमें अपने उपकारादिकी बुद्धिको छोड़नेमें प्रवृत्त हुआ हूँ // 52 // . . . . ज्ञानी पुरुष अपने आपको लिङ्ग और संख्याके विकल्पोंसे रहित शुद्ध रूपमें अनुभव करता है येनात्मनाऽनुभूयेऽहमात्मनैवात्मनात्मनि / . ___ सोऽहं न तन्न सा नासौ नंको न द्वौ न वा बहुः // 53 / / ___ जिस चैतन्यस्वरूपसे अपनी आत्मामें ही अपने स्वसंवेदन ज्ञानके द्वारा अपनी आत्माको आपही अनुभव करता हूँ वही शुद्धात्मस्वरूप -- मैं न तो नपुंसक हूँ, न स्त्री हूँ, न पुरुष हूँ, न एक हूँ, न दो हूँ, और न बहुत हूँ। किन्तु अखण्ड चैतन्य पिण्डरूप हूँ // 53 //