________________ 286 जैनधर्मामृत जानने वाला चैतन्य रूप है वह मुझे इन्द्रियोंके द्वारा दिखाई नहीं देता ? इसलिए मैं किससे बोलूँ और किसके साथ बात करूँ॥४८॥ वोध्य-बोधक या प्रतिपाद्य-प्रतिपादक भावकी मीमांसा यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान्प्रतिपादये। उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः // 46 / / __ मैं गुरुजनोंसे जो कुछ प्रतिपादित किया जाता हूँ तथा शिष्यादिकोंको जो कुछ प्रतिपादन करता हूँ वह सब मेरी पागलों जैसी चेष्टा है, क्यों कि मैं वास्तवमें निर्विकल्प हूँ अर्थात् इन सभी वचन- . विकल्पोंसे अग्राह्य हूँ॥४९॥ - ज्ञानी पुरुष विचारता है कि मैं न अग्राह्यका ग्राहक हूँ और न स्व स्वरूपका छोड़ने वाला ही हूँ। मैं तो सदा स्व संवेदनगोचर और सर्वका ज्ञायक हूँ। यदग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुञ्चति / जानाति सर्वथा सर्व तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् // 50 // __ जो शुद्धात्मा ग्रहण न करने योग्य वस्तुको ग्रहण नहीं करता है और ग्रहण किये हुए अनन्तज्ञानादि गुणोंको छोड़ता नहीं है, तथा सम्पूर्ण पदार्थोको सर्व प्रकारसे जानता है, वही, अपने द्वारा अनुभवमें आनेके योग्य चैतन्यद्रव्य मैं हूँ // 50 // ज्ञानी पुरुष विचारता है कि भेद-विज्ञान होनेके पूर्व मेरी कैसी चेष्टा थी उत्पन्नपुरुपभ्रान्तेः स्थाणौ यद्वद्विचेष्टितम् / तद्वन्मे चेष्टितं पूर्व देहादिप्वात्मविभ्रमात् // 51 // ...