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________________ चतुर्दशः अध्याय 285 .. भावार्थ-जो जीव संसारके क्लेशोंसे छूटना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि वे अन्य सर्व कार्य छोड़कर एकमात्र उसी परम ज्योतिकी उपासना करें, जिसके प्रतापसे अनादिकालीन अज्ञानान्धकार क्षणभरमें विनष्ट हो जाता है। अब आचार्य अपने उपयुक्त कथनका उपसंहार करते हुए मुमुक्षु जनोंके लिए प्रयोजनभूत सार तत्त्वका उपदेश देते हुए कहते हैं. . जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्यः इत्यसौ तत्वसंग्रहः / ____ यदन्यदुच्यते किञ्चित्सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः // 47 // - जीव शरीरादिरूप जड़ पुद्गलसे भिन्न है और पुद्गल ज्ञानरूप चेतन आत्मासे भिन्न है, इतना ही तत्त्वका संग्रह है। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी कहा जाता है, वह सब इसीका विस्तार है // 47 // भावार्थ:-समस्त धर्मशास्त्रोंके उपदेशका सार. इतना ही है कि शरीरादि पौगलिक पदार्थोंको आत्मासे भिन्न जानकर उनमें राग, द्वेष और मोह मत करो / आत्माके कर्म-बन्धनसे मुक्त होनेका परम आनन्द या अनन्त सुख प्राप्त करनेका मूलमन्त्र इतना ही है। .. आचार्यके उपदेशसे प्रवुद्ध हुआ ज्ञानी विचार करता है. . यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा। जानन्न दृश्यते रूपं ततः केन ब्रवीम्यहम् // 48 // इन्द्रियोंके द्वारा जो शरीरादिकरूपी पदार्थ दिखाई दे रहा है वह अचेतन होनेसे कुछ भी नहीं जानता,। और जो पदार्थों को
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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