________________ 284 - जैनधर्मामृत के लिए सदा उद्यमशील रहता है और परसे दूर रहनेका प्रयत्न किया करता है // 44 // अब आचार्य उस परम आनन्दका कार्य बतलाते हैं आनन्दो निर्दहत्युद्धं कर्मेन्धनमनारतम् / न चासौ खिद्यते योगी बहिर्दुःखेप्वचेतनः // 45 // वह परम आनन्द आत्माके भीतर अनादिकालसे संचित हुए कर्मरूप ईंधनको निरन्तर प्रबल वेगसे जलाता रहता है और ध्यानावस्थामें वह आनन्द-पूर आत्मामें इतने वेगसे प्रवाहित होता है कि उस समय बाहरी परीषह तथा उपसर्ग-जनित महान् दुःखोंके आनेपर भी योगी उनसे अपरिचित रहता है और इस कारण वह रंचमात्र भी दुःखोंको प्राप्त नहीं होता है // 45 // भावार्थ-उस परम आनन्दमें निमग्न योगीके बाहरी दुःखों का भान भी नहीं होता. और इसी कारण वह क्षणमात्रमें शुक्लध्यानरूपी अग्निसे कर्मरूपी ईंधनको भस्मसात् कर देता है। ____ अब आचार्य मुमुक्षु जनोंको सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि जब ध्यानावस्थामें उत्पन्न हुए आनन्दकी इतनी अपार महिमा है, तव निरन्तर उसीकी उपासना करनी चाहिए अविद्याभिदुरं ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत् / तत्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं तद्रष्टव्यं मुमुक्षुभिः // 46 // यतः वह परम ज्ञानमय महान् ज्योति कर्म-जनित अविद्यारूप अज्ञानान्धकारकी विनाशक है, अतः मुमुक्षु जनोंको एकमात्र उसीके . विषयमें पूछना चाहिए, उसीकी अभिलाषा करनी चाहिए और उसीका अनुभव करना चाहिए // 46 //