________________ चतुर्दश अध्याय 283 ऐसा जानकर ही महापुरुष आत्म-स्वरूपकी प्राप्तिके लिए उद्यम किया करते हैं // 42 // परपदार्थकी इच्छाका फल भविद्वान् पुद्गलद्रव्यं योऽभिनन्दति तस्य तत् / न जातु जन्तोः सामीप्यं चतुर्गतिपु मुञ्चति // 43 // जो अज्ञानी जीव देहादि रूप पुद्गल द्रव्यको अपना मानकर उसका अभिनन्दन करता है, वह पुद्गल द्रव्य चारों गतियोंमें उस जीवका कदाचित् भी सामीप्य नहीं छोड़ता है // 43 // भावार्थ हेय व उपादेयका विवेक न होनेसे जो शरीरादि पौगलिक पदार्थोंको अपना मानता है, उनके इष्ट-विषयोंकी अभिलाषा कर अभिनन्दन करता है, उसमें मोहित होता है और अनिष्ट से द्वेष करता है, वह इस राग-द्वेषरूप परिणतिसे निरन्तर नवीन कर्मोंका बन्ध करता रहता है और इस कारण उसे सदा चर्तुगति रुप संसारमें परिभ्रमण करना पड़ता है। इसलिए ज्ञानीजन परपदार्थकी इच्छा नहीं करते हैं। स्व-स्वरूपके अपनानेका रहस्य आत्मानुष्ठाननिष्टस्य व्यवहारवहिःस्थितेः। जायते परमानन्दः कश्चिद्योगेन योगिनः // 44 // प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप व्यवहारसे दूर रहने वाले और एकमात्र मात्माके. अनुष्ठानमें निष्ठ योगीके योग-बलसे कोई अनिर्वचनीय परम आनन्द प्राप्त होता है। इसी कारण वह आत्मस्वरूपकी प्राप्ति